Friday, August 1, 2008

रो ना तू रो ना

रो तू रो ना ग़म ना कर चैन अपना खो ना
जाग जा तू जाग जा इस्लाम है जहान है गफ़लत में सो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना रोकर मिलेगा क्या शर्मसार हो ना
थम ले तू दामने इस्लाम को काहिलों सा हो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना दुनिया की फिकर ना कर कद्रदान तू हो ना
हीरों सा ये दीन है कीमत अदा ना हो ऐसा अज़ीम है बेअसर तू हो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना मरी हुई बकरी सी ये दुनिया ज़लील है आदी तू हो ना
मुक़द्दर जो हो चुकी सो मिलनी ज़रूर है दीन को तू खो ना रो तू रो
रो ना तू रो ना हलाल का सवाल कर हराम तो वबाल है तालिब तू हो ना
रोज़ी बरकती इज्ज़तो सुकून की है मिलती नमाज़ से बेखबर तू हो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना लुकमा हराम का आग है फसाद है जहन्नमी तू हो ना
टुकड़ा हलाल का देता अमान है बढ़ता ईमान है लालची तू हो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना हश्र में जो जाएगा एक दिन बताएगा ये दुनिया का होना
रहम की मुआफी की फ़ज़्ल की दुआ तू कर आजिज़ तू हो ना रो ना तू रो ना
रो ना तू रो ना मौत जब हाँ आएगी रोएगा चिल्लाएगा मुझे वापस है होना
मुहलतें ख़तम हुईं उम्र जब गुज़र गई आँखें खुलीं पता चला बेकार है गफलत में सोना रो ना तू रो ना

1 comment:

Anonymous said...

I like the way you are writing and thinking. But, sorry and say Muhammad Sir few lines are not practical.